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Expression
अभिव्यक्ति
اظہار
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"Full many a Gem of purest Ray Serene,
The dark unfathom'd Caves of Ocean bear;
Full many a Flower is born to blush unseen,
And waste its sweetness on the desert Air."
-( Thomas Gray:Elegy Written in a Country Churchyard)
The dark unfathom'd Caves of Ocean bear;
Full many a Flower is born to blush unseen,
And waste its sweetness on the desert Air."
-( Thomas Gray:Elegy Written in a Country Churchyard)
मैं नहीं चाहता चिर सुख
मैं नहीं चाहता चिर दुःख
सुख- दुःख की आँख मिचोली में
खोले जीवन अपना मुख
मैं नहीं चाहता चिर सुख
मैं नहीं चाहता चिर दुःख
--सुमित्रा नंदन पन्त
जीवन की आपाधापी
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो
किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर
एक
यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर
एक
लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ
गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो
भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो
किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो
कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो
किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह
तो
भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब
मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह
कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह
थी
तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो
किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है
एक
कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर
मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ
ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल
इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले
मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग
दे
मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस
एक
और
पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो
किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
-डॉ.
हरिवंश राय बच्चन
कारवाँ
गुज़र गया
स्वप्न
झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़ेखड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़ेखड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
नींद
भी खुली न
थी कि हाय
धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पातपात झर गये कि शाख़शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए,
छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ पहन गये,
और हम झुकेझुके,
मोड़ पर रुकेरुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पातपात झर गये कि शाख़शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए,
छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ पहन गये,
और हम झुकेझुके,
मोड़ पर रुकेरुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
क्या
शबाब था कि
फूलफूल प्यार कर
उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा,
इस तरफ ज़मीन उठी तो आसमान उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कलीकली कि घुट गयी गलीगली,
और हम लुटेलुटे,
वक्त से पिटेपिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा,
इस तरफ ज़मीन उठी तो आसमान उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कलीकली कि घुट गयी गलीगली,
और हम लुटेलुटे,
वक्त से पिटेपिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
हाथ
थे मिले कि
जुल्फ चाँद की
सँवार दूँ,
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखरबिखर,
और हम डरेडरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखरबिखर,
और हम डरेडरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
माँग
भर चली कि
एक, जब नई
नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरनचरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयननयन,
पर तभी ज़हर भरी,
गाज एक वह गिरी,
पुँछ गया सिंदूर तारतार हुई चूनरी,
और हम अजानसे,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरनचरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयननयन,
पर तभी ज़हर भरी,
गाज एक वह गिरी,
पुँछ गया सिंदूर तारतार हुई चूनरी,
और हम अजानसे,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
- गोपालदास नीरज
अग्नि पथ, अग्नि पथ, अग्नि पथ!
वृक्ष हों भले खड़े , हों बड़े, हों घने
एक पत्र छाँव भी मांग मत, मांग मत, मांग मत;
अग्नि पथ, अग्नि पथ, अग्नि पथ!
तू न रुकेगा कभी, तू न झुकेगा कभी
तू न थमेगा कभी, कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ!
अग्नि पथ, अग्नि पथ, अग्नि पथ!
क्या महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है
अश्र्व, स्वेद, रक्त-कण से लथपथ, लथपथ, लथपथ!
अग्नि पथ, अग्नि पथ, अग्नि पथ!
वृक्ष हों भले खड़े , हों बड़े, हों घने
एक पत्र छाँव भी मांग मत, मांग मत, मांग मत;
अग्नि पथ, अग्नि पथ, अग्नि पथ!
तू न रुकेगा कभी, तू न झुकेगा कभी
तू न थमेगा कभी, कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ!
अग्नि पथ, अग्नि पथ, अग्नि पथ!
क्या महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है
अश्र्व, स्वेद, रक्त-कण से लथपथ, लथपथ, लथपथ!
अग्नि पथ, अग्नि पथ, अग्नि पथ!
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गर्म लोहा पीट,
ठंडा पीटने को
वक्त बहुतेरा पड़ा
है।
एक गज छाती मगर सौ गज बराबर
हौसला उसमें, सही है;
कान करनी चाहिये जो कुछ
तजुर्बेकार लोगों नें कही है;
स्वप्न से लड़ स्वप्न की ही शक्ल में है
लौह के टुकड़े बदलते
लौह का वह ठोस बन कर है निकलता जो कि लोहे से लड़ा है।
गर्म लोहा पीट, ठंड़ा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
घन हथौड़े और तौले हाँथ की दे
चोट, अब तलवार गढ तू
और है किस चीज की तुझको भविष्यत
माँग करता आज पढ तू,
औ, अमित संतान को अपनी थमा जा
धारवाली यह धरोहर
वह अजित संसार में है शब्द का खर खड्ग ले कर जो खड़ा है।
गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
हौसला उसमें, सही है;
कान करनी चाहिये जो कुछ
तजुर्बेकार लोगों नें कही है;
स्वप्न से लड़ स्वप्न की ही शक्ल में है
लौह के टुकड़े बदलते
लौह का वह ठोस बन कर है निकलता जो कि लोहे से लड़ा है।
गर्म लोहा पीट, ठंड़ा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
घन हथौड़े और तौले हाँथ की दे
चोट, अब तलवार गढ तू
और है किस चीज की तुझको भविष्यत
माँग करता आज पढ तू,
औ, अमित संतान को अपनी थमा जा
धारवाली यह धरोहर
वह अजित संसार में है शब्द का खर खड्ग ले कर जो खड़ा है।
गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
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लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
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जो बीत गई, सो बात गई !
जीवन में एक सितारा था,
मन बेहद वो प्यारा था !
वह टूट गया तो टूट गया !
अम्बर के आनन को देखो,
कितने इसके तारे टूटे,
कितने इसके प्यारे छूटे;
पर बोलो टूटे तारों पर कब अम्बर शोर मचाता है ?
जो बीत गई, सो बात गई !
जीवन में एक सितारा था,
मन बेहद वो प्यारा था !
वह टूट गया तो टूट गया !
अम्बर के आनन को देखो,
कितने इसके तारे टूटे,
कितने इसके प्यारे छूटे;
पर बोलो टूटे तारों पर कब अम्बर शोर मचाता है ?
जो बीत गई, सो बात गई !
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इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है!
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जाएँगे,
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
प्याला है पर पी पाएँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दिए धर कंधों पर, जो रोरोकर हमने ढोए,
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा!
उर में एसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सोए!
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूरकठिन को कोस चुके,
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
संसृति के जीवन में, सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आऐंगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव रजनी तम की चादर से ढक देगी,
तब रविशशिपोषित यह पृथिवी कितने दिन खैर मनाएगी!
जब इस लंबेचौड़े जग का अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब तेरा मेरा नन्हासा संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
ऐसा चिर पतझड़ आएगा, कोयल न कुहुक फिर पाएगी,
बुलबुल न अंधेरे में गागा जीवन की ज्योति जगाएगी,
अगणित मृदुनव पल्लव के स्वर 'भरभर' न सुने जाएँगे,
अलिअवली कलिदल पर गुंजन करने के हेतु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिय हो जाएगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
सुन काल प्रबल का गुरु गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज 'टलमल', सरिता अपना 'कलकल' गायन,
वह गायकनायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा!
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण!
संगीत सजीव हुआ जिनमें, जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का, जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा देखो माली, सुकुमार लताओं के गहने,
दो दिन में खींची जाएगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पाएगा कितने दिन रहने!
जब मूर्तिमती सत्ताओं की शोभाशुषमा लुट जाएगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का श्रृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई हम सब को खींच बुलाता है!
मैं आज चला तुम आओगी, कल, परसों, सब संगीसाथी,
दुनिया रोतीधोती रहती, जिसको जाना है, जाता है।
मेरा तो होता मन डगडग मग, तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
-डॉ. हरिवंश राय बच्चन
उर्वशी : रामधारी सिंह "दिनकर"
पर, तुम भूल रही हो रम्भे! नश्वरता के वर को;
भू को जो आनन्द सुलभ है, नही प्राप्त अम्बर को.
हम भी कितने विवश ! गन्ध पीकर ही रह जाते है,
स्वाद व्यंजनॉ का न कभी रसना से ले पाते है.
हो जाते है तृप्त पान कर स्वर-माधुरी स्रवण से
रूप भोगते है मन से या तृष्णा भरे नयन से.
पर, जब कोई ज्वार रुप को देख उमड़ आता है,
किसी अनिर्वचनीय क्षुधा मॅ जीवन पड़ जाता है,
उस पीड़ा से बचने की तब राह नही मिलती है
उठती जो वेदना यहाँ, खुल कर न कभी खिलती है
किंतु, मर्त्य जीवन पर ऐसा कोई बन्ध नही है
रुके गन्ध तक, वहाँ प्रेम पर यह प्रतिबन्ध नही है
नर के वश की बात, देवता बने कि नर रह जाए,
रुके गन्ध पर या बढ कर फूलॉ को गले लगाए.
पर, सुर बनॅ मनुज भी, वे यह स्वत्व न पा सकते है,
गन्धॉ की सीमा से आगे देव न जा सकते है.
क्या है यह अमरत्व? समीरॉ-सा सौरभ पीना है,
मन मॅ धूम समेट शांति से युग-युग तक जीना है.
पर, सोचो तो, मर्त्य मनुज कितना मधु-रस पीता है!
दो दिन ही हो, पर, कैसे वह धधक-धधक जीता है!
इन ज्वलंत वेगॉ के आगे मलिन शांति सारी है
क्षण भर की उन्मद तरंग पर चिरता बलिहारी है.
भू को जो आनन्द सुलभ है, नही प्राप्त अम्बर को.
हम भी कितने विवश ! गन्ध पीकर ही रह जाते है,
स्वाद व्यंजनॉ का न कभी रसना से ले पाते है.
हो जाते है तृप्त पान कर स्वर-माधुरी स्रवण से
रूप भोगते है मन से या तृष्णा भरे नयन से.
पर, जब कोई ज्वार रुप को देख उमड़ आता है,
किसी अनिर्वचनीय क्षुधा मॅ जीवन पड़ जाता है,
उस पीड़ा से बचने की तब राह नही मिलती है
उठती जो वेदना यहाँ, खुल कर न कभी खिलती है
किंतु, मर्त्य जीवन पर ऐसा कोई बन्ध नही है
रुके गन्ध तक, वहाँ प्रेम पर यह प्रतिबन्ध नही है
नर के वश की बात, देवता बने कि नर रह जाए,
रुके गन्ध पर या बढ कर फूलॉ को गले लगाए.
पर, सुर बनॅ मनुज भी, वे यह स्वत्व न पा सकते है,
गन्धॉ की सीमा से आगे देव न जा सकते है.
क्या है यह अमरत्व? समीरॉ-सा सौरभ पीना है,
मन मॅ धूम समेट शांति से युग-युग तक जीना है.
पर, सोचो तो, मर्त्य मनुज कितना मधु-रस पीता है!
दो दिन ही हो, पर, कैसे वह धधक-धधक जीता है!
इन ज्वलंत वेगॉ के आगे मलिन शांति सारी है
क्षण भर की उन्मद तरंग पर चिरता बलिहारी है.
रम्भा
ऐसा कठिन प्रेम होता है?
सहजन्या
इसमॅ क्या विस्मय है?
कहते है, धरती पर सब रोगॉ से कठिन प्रणय है
लगता है यह जिसे, उसे फिर नीन्द नही आती है
दिवस रुदन मॅ, रात आह भरने मॅ कट जाती है.
मन खोया-खोया, आंखॅ कुछ भरी-भरी रहती है
भींगी पुतली मॅ कोई तस्वीर खडी रह्ती है
रम्भा ऐसा कठिन प्रेम होता है?
सहजन्या
इसमॅ क्या विस्मय है?
कहते है, धरती पर सब रोगॉ से कठिन प्रणय है
लगता है यह जिसे, उसे फिर नीन्द नही आती है
दिवस रुदन मॅ, रात आह भरने मॅ कट जाती है.
मन खोया-खोया, आंखॅ कुछ भरी-भरी रहती है
भींगी पुतली मॅ कोई तस्वीर खडी रह्ती है
सो सुख तो होगा , परंतु, यह मही बड़ी कुत्सित है
जहाँ प्रेम की मादकता मॅ भी यातना निहित है
नही पुष्प ही अलम, वहाँ फल भी जनना होता है
जो भी करती प्रेम,उसे माता बनना होता है.
और मातृ-पद को पवित्र धरती ,यद्यपि, कहती है,
पर, माता बनकर नारी क्या क्लेश नही सहती है?
तन हो जाता शिथिल, दान मॅ यौवन गल जाता है
ममता के रस मॅ प्राणॉ का वेग पिघल जाता है.
रुक जाती है राह स्वप्न-जग मॅ आने-जाने की,
फूलॉ मॅ उन्मुक्त घूमने की सौरभ पाने की .
मेघॉ मॅ कामना नही उन्मुक्त खेल करती है,
प्राणॉ मॅ फिर नही इन्द्रधनुषी उमंग भरती है.
रोग, शोक, संताप, जरा, सब आते ही रह्ते है,
पृथ्वी के प्राणी विषाद नित पाते ही रहते है.
अच्छी है यह भूमि जहाँ बूढ़ी होती है नारी,
कण भर मधु का लोभ और इतनी विपत्तियाँ सारी?
पर, माता बनकर नारी क्या क्लेश नही सहती है?
तन हो जाता शिथिल, दान मॅ यौवन गल जाता है
ममता के रस मॅ प्राणॉ का वेग पिघल जाता है.
रुक जाती है राह स्वप्न-जग मॅ आने-जाने की,
फूलॉ मॅ उन्मुक्त घूमने की सौरभ पाने की .
मेघॉ मॅ कामना नही उन्मुक्त खेल करती है,
प्राणॉ मॅ फिर नही इन्द्रधनुषी उमंग भरती है.
रोग, शोक, संताप, जरा, सब आते ही रह्ते है,
पृथ्वी के प्राणी विषाद नित पाते ही रहते है.
अच्छी है यह भूमि जहाँ बूढ़ी होती है नारी,
कण भर मधु का लोभ और इतनी विपत्तियाँ सारी?
मेनका
पर, रम्भे! क्या कभी बात यह मन मॅ आती है,
माँ बनते ही त्रिया कहाँ-से-कहाँ पहुंच जाती है?
गलती है हिमशिला, सत्य है, गठन देह की खोकर,
पर, हो जाती वह असीम कितनी पयस्विनी होकर?
युवा जननि को देख शांति कैसी मन मॅ जगती है!
रूपमती भी सखी! मुझे तो वही त्रिया लगती है,
जो गोदी मॅ लिये क्षीरमुख शिशु को सुला रही हो
अथवा खड़ी प्रसन्न पुत्र का पलना झुला रही हो
पर, रम्भे! क्या कभी बात यह मन मॅ आती है,
माँ बनते ही त्रिया कहाँ-से-कहाँ पहुंच जाती है?
गलती है हिमशिला, सत्य है, गठन देह की खोकर,
पर, हो जाती वह असीम कितनी पयस्विनी होकर?
युवा जननि को देख शांति कैसी मन मॅ जगती है!
रूपमती भी सखी! मुझे तो वही त्रिया लगती है,
जो गोदी मॅ लिये क्षीरमुख शिशु को सुला रही हो
अथवा खड़ी प्रसन्न पुत्र का पलना झुला रही हो
औशीनरी
कौन कहे ? यह प्रेम ह्रदय की बहुत बड़ी उलझन है.
जो अलभ्य, जो दूर,उसी को अधिक चाहता मन है.
कौन कहे ? यह प्रेम ह्रदय की बहुत बड़ी उलझन है.
जो अलभ्य, जो दूर,उसी को अधिक चाहता मन है.
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